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उत्तराखण्ड के जंगलों में लगी आग, पहाड़ी इलाकों में डरावने हालात

by NewsDesk - 19 May 24 | 158

- पहाड़ी जंगलों में लगने वाली आग का सबसे बड़ा कारण चीड़ के पेड़

देहरादून। उत्तराखंड के जंगल इन दिनों आग की लपटों से घिरे हुए हैं। आग लगातार बढ़ती ही जा रही है। आग पर काबू पाने के सारे सरकारी दावे नाकाम होते दिखाई दे रहे हैं। उत्तराखंड के जंगलों में लगी आग से पैदा हुई आपदा के कारण राज्य के पहाड़ी इलाकों में डरावने वाले हालात से गुज़रना पड़ रहा है। बीते साल नवंबर से ही जंगलों में आग की घटनाएं सामने आती रही हैं। प्रशासन ने आग से होने वाले नुकसान को सिर्फ पेड़-पौधों तक ही सीमित रखा है, लेकिन जीबी पंत हिमालयी संस्थान का कहना है कि नुकसान का आकलन जंगलों के पूरे इकोसिस्टम के हिसाब से किया जाना चाहिए।

अक्सर आग जंगलों के निचला हिस्से से चोटी की ओर फैलती है। इसे धराग्नि कहते हैं। धराग्नि पर काबू पाना बेहद मुश्किल होता है। आग से जंगल में मौजूद जल सोखने वाले पेड़ नष्ट हो जाते हैं। पहाड़ी जंगलों में लगने वाली आग का सबसे बड़ा कारण चीड़ के पेड़ होते है। यह जमीन को न सिर्फ सूखा बनाते हैं, बल्कि इस पेड़ सूखी पत्तियां गिरकर जमीन पर इकट्ठा हो जाती हैं। थोड़ी-सी चिंगारी मिलने पर ये बड़े वन क्षेत्र को अपनी जद में ले लेती है। हालांकि, यह पेड़ों का ज्यादा नुकसान नहीं करती, लेकिन जमीन और मिट्टी के अंदर बिल बनाकर रहने वाले जीवों को नुकसान पहुंचता है। जंगल में आग से धरती की नमी और पानी सोखने की क्षमता कम हो जाती है। फिर जब भी बारिश होती है तो सतह की मिट्टी नदियों में बह जाती है। इससे धरती की उपजाऊ क्षमता में कमी आती है। यही नहीं इससे प्रजातियों के कुदरती प्रजनन की संभावना कम हो जाती है। यह आग मिट्टी के अंदर मौजूद जंतुओं, अति सूक्ष्‍म जीवों और फंगस आदि को नष्ट कर देती है। ये चीजें कुदरती तरीके से डेड ऑर्गेनिक मैटर को दोबारा पोषक तत्वों और गैस में बदलने का अहम काम करते हैं। इसके अलावा, यह आग जंगल को सुंदर बनाने वाले वन्यजीवों, पशु-पक्षियों, अलग-अलग तरह के फूल-पौधों और औषधीय जड़ी-बूटियों को भी राख में बदल देती है।

उत्तराखंड के पहाड़ों के जंगल में 16 फीसदी इलाका चीड़ के पेड़ों का है। एक आकलन के मुताबिक, एक हेक्टेयर में मौजूद चीड़ के पेड़ों से सालभर में 7 टन सूखी पत्तियों का ढेर फैलता है। उत्तराखंड में अगर 8000 वर्ग किलोमीटर में चीड़ वन फैले हैं। गर्मी के सीजन में चीड़ के जंगलों में लीसा निकालने का काम भी शुरू होता। लीसा जो उत्तराखंड के चीड़ के जंगलों से मिलने वाली एक अहम वन उपज है। इससे तारपीन का तेल निकलता है, जिसका इस्तेमाल कागज, साबुन, और पेंट बनाने में किया जाता है। लीसा ग्रामीण इकोनॉमी और रोजगार का अहम जरिया है। यह इतना ज्वलनशील होता है कि उसमें लगी आग पर काबू पाना बहुत मुश्किल हो जाता है। इस बार की आग में 4 लीसा मजदूर आग की चपेट में आने से मौत हो चुकी है। आग से लीसा डिपो की सुरक्षा को लेकर भी बड़ा खतरा पैदा होता है। उत्तराखंड वन विभाग बड़े पैमाने पर लीसा का उत्पादन करता है। लीसा से सरकार को अच्छा-खासा रेवेन्यू मिलता है।

प्री-मॉनसून सीजन में वेस्टर्न डिस्टर्बंस की घटनाओं में आई कमी से बर्फबारी कम हुई। बारिश भी न के बराबर हुई। पहले डिस्टर्बंस की 15-20 घटनाएं होती थीं, लेकिन इस बार सिर्फ 7 से 8 बार ही हुई। इसके कारण जंगलों की नमी खत्म हो गई। वे सूख गए। पिछले साल नवंबर के महीने से ही जंगलों में आग की खबरें आने लगीं। भयानक आग की वजह से हवा की क्वॉलिटी बिगड़ी। अब इस बात को लेकर भी वैज्ञानिक डरे हैं कि कहीं आग के कारण हवा में फैले हुए ज्यादा कार्बन कण ग्लेशियरों पर न जम जाएं। अगर ऐसा हुआ तो ग्लेशियर के पिघलने की आशंका बढ़ जाएगी। इससे चमोली और केदारनाथ जैसे हादसे भी हो सकते हैं।

आग से होने वाले नुकसान से बचने के लिए दुनिया की सबसे नई तकनीक वेदर जनरेटर टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया जा सकता है। इसके तहत बिना किसी नुकसान के आयन जनरेटर मॉड्यूल स्थापित कर कई किलोमीटर दूर से बादलों को ट्रैवल करवाकर टारगेट एरिया में बारिश करवाई जा सकती है। इस टेक्नोलॉजी से केवल फॉरेस्ट फायर में ही मदद नहीं मिलेगी, बल्कि बादल फटने की स्थिति को भी टाला जा सकता है।

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