वन नेशन-वन इलेक्शन’ का विचार नया नहीं है. आजादी के बाद लंबे समय तक लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होते रहे. देश और राज्यों में चुनावी प्रक्रिया जनता और सरकार के लिए बोझिल होती दिखाई पड़ने लगी है. ऐसा कोई भी साल नहीं जाता जब किसी न किसी राज्य में चुनाव की प्रक्रिया ना होती हो. लोकसभा और विधानसभाओं के पांच साल की समय अवधि में हर साल सरकारों को चुनाव की परीक्षा से गुजरना पड़ता है. चुनावी परीक्षा इतनी खर्चीली और सिस्टम पर भारी पड़ने लगी है कि ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ की अवधारणा अब सरकारों के संचालन और विकास को संतुलित रखने के लिए तार्किक और उपयोगी लगने लगी है. केंद्र की मोदी सरकार ने संसद का विशेष सत्र आमंत्रित किया और इसके साथ ही राजनीतिक अफवाहों का दौर शुरू हो गया.
सरकार द्वारा 'वन नेशन-वन इलेक्शन' के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में समिति गठित करने के पहले ही पूरे देश के मीडिया ने यह आशंका व्यक्त की कि मोदी सरकार ने देश में वर्षों से चर्चित लेकिन लंबित विषयों पर कानून बनाने के लिए विशेष सत्र बुलाया है. किसी पर भी नामुमकिन को मुमकिन करने का ऐसा भरोसा देश के अर्ध चेतन मन में समाहित हो गया है. यह शायद इसलिए हो सका है क्योंकि मोदी सरकार का इतिहास सिस्टम और प्रक्रिया को सुधारने के लिए अप्रत्याशित क्रांतिकारी फैसले लेने का रहा है.'वन नेशन-वन इलेक्शन' अब देश की जरूरत बन गई है. चुनाव कराने की वित्तीय लागत लगातार बढ़ रही है. चुनाव से प्रशासनिक स्थिरता प्रभावित होती है. चुनावी प्रक्रिया में व्यवस्था पर दृश्य और अदृश्य लागत का बोझ जनता पर ही पड़ता है. राजनीतिक दलों के लिए भी लगातार हो रहे चुनाव के अभियान और उनकी लागत भारी पड़ती है. बीजेपी के नजरिये में 'वन नेशन-वन इलेक्शन' बहुत पहले से रहा है. ऐसे फैसले एक स्थिर-मजबूत सरकार और लीडरशिप द्वारा ही लिए जा सकते हैं. देश को शायद इसीलिए यह भरोसा मजबूत हुआ है कि 'वन नेशन-वन इलेक्शन' चुनाव सुधार की जरूरी व्यवस्थाएं लागू होने का शायद वक्त आ गया है.
'एक राष्ट्र एक चुनाव' का प्रस्ताव 1983 में पहली बार चुनाव आयोग द्वारा दिया गया था. देश में आजादी के बाद 1967 तक एक साथ चुनाव के ही प्रतिमान निर्धारित हैं. सरकारों के कार्यकाल के पहले केंद्र और राज्य की सरकारों के पतन के कारण एक साथ चुनाव के प्रतिमान टूट गए और इसी कारण एक साथ चुनाव का चक्र बाधित हो गया. नीति आयोग और ला कमीशन की ओर से समय-समय पर इस बारे में विचार किया गया.‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ का सबसे बड़ा फायदा चुनाव के खर्चे से बचत के रूप में होगा. चुनाव की अगणनीय लागत के कारण सामान्य व्यक्ति चुनाव लड़ने की क्षमता भी खोता जा रहा है. चुनाव के कारण धन का अपव्यव तो होता ही है लेकिन सरकारी अमले और संसाधन का भी दुरुपयोग होता है. चुनावी प्रक्रिया के कारण सरकारें नीति पक्षाघात का शिकार हो जाती हैं. आदर्श आचरण संहिता से सरकारों का कामकाज प्रभावित होता है. पंचायत से लगाकर पार्लियामेंट तक के चुनाव में यही प्रक्रिया लागू होती है.अलग-अलग वोटर लिस्ट की धारणा भी खत्म होना चाहिए.एक ही मतदाता सूची को चुनावों के लिए अपडेट करते रहना चाहिए.
यह बात जरूर है कि अलग-अलग राज्यों की विधानसभाओं और लोकसभा के कार्यकाल की तिथियाँ अलग-अलग हैं. ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ की परिकल्पना को अमल में लाने के लिए संविधान संशोधन करने की जरूरत होगी. राजनीतिक नजरिए से देशहित के क्रांतिकारी कदम कभी सफलतापूर्वक उठाये नहीं जा सकते जब तक कि इस पर आम सहमति नहीं बन सके.विचारधाराओं में टकराव के कारण देश में ऐसी दुर्भाग्यजनक राजनीतिक स्थिति बनी है कि देशहित के विषयों पर भी राजनीतिक पक्ष-विपक्ष की धाराएं काम करने लगती हैं. यह भी ध्यान नहीं रखा जाता कि इससे राष्ट्र को कितना फायदा है या कितना नुकसान है? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ तो ऐसी किंवदंती जुड़ गई है कि देश को बदलने के लिए वह कितनी भी ईमानदारी और नेकनियत से कोई भी काम करें विपक्ष को उसका विरोध करना ही है. देश राजनीतिक अंधभक्ति और अंधविरोध के दौर से गुजर रहा है. लोकतंत्र में पक्ष-विपक्ष स्वागत योग्य है लेकिन विरोध के लिए विरोध तो लोकतंत्र का ही विरोध साबित हो जाता है.
'एक राष्ट्र एक चुनाव' की अवधारणा पर मोदी सरकार आगे बढ़ना चाहती है. विपक्ष इसे असंवैधानिक और संघवाद के खिलाफ बताकर विरोध कर रहा है. किसी भी विचार का तर्कों के आधार पर विरोध होना चाहिए. चुनाव में बेतहाशा खर्चा सरकार में शामिल दल को ही नहीं उठाना पड़ता विपक्ष को भी चुनावी खर्चे के लिए सारे हथकंडे अपनाने पड़ते हैं. ‘वन नेशन-वन इलेक्शन’ को द्विदलीय सिस्टम को आगे बढ़ाने की मंशा के साथ लाने का आरोप भी विपक्ष द्वारा लगाया जा रहा है. यह भी कहा जा रहा है कि क्षेत्रीय दलों को इससे नुकसान होगा. चुनाव एक साथ हों या अलग अलग हों इससे किसी को भी कैसे नुकसान होगा और इसे संविधान के विरुद्ध कैसे कहा जा सकता है? चुनाव रोके नहीं जा रहे हैं बल्कि चुनाव देश के हित में खर्चे कम करने के लिए और सतत विकास की गति बनाए रखने के लिए एक साथ कराने की अवधारणा लागू करने पर विचार किया जा रहा है. इस पर चर्चा होनी चाहिए. इसकी कमियों और फायदों पर बहस होना चाहिए. भारत का लोकतंत्र तभी मजबूत होगा जब चुनाव पारदर्शी ढंग से एक साथ चुनावी प्रक्रिया की खामियों को दूर करते हुए होंगे.
चुनाव के संबंध में बेतहाशा खर्चों के कारण चुनावी चंदे के रूप में काले धन का उपयोग भी एक बड़ी समस्या है. वैसे तो राजनीतिक दल चुनाव सुधार को उनके हित के खिलाफ मानते हैं. किसी भी व्यवस्था को सुधारा नहीं जाता है तो फिर उसके जड़ होने और निरर्थक होने का खतरा बना रहता है. भारत में यह विचार भी लंबे समय से चल रहा है कि चुनावी खर्च सरकार द्वारा क्यों नहीं वहन किया जाना चाहिए? राजनीति के अपराधीकरण और काले धन के उपयोग को रोकने की प्रक्रिया पर भी विचार किया जाना चाहिए.भारत के इतिहास में यह पहली घटना होगी कि किसी पूर्व राष्ट्रपति को संविधान में बदलाव के विचार को मूर्त रूप देने के संबंध में सुझाव के लिए कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया है. ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ का विचार इतना क्रांतिकारी है कि यह भारत के लोकतंत्र को नया आधार प्रदान करेगा. ऐतिहासिक कदम के लिए राष्ट्रपति रहे व्यक्ति के अनुभव का उपयोग करना निश्चित रूप से देश हित में ही कहा जाएगा.
मोदी सरकार ने पहले भी कई क्रांतिकारी कदम उठाएं हैं लेकिन उन्हें अमल में लाने में काफी कठिनाइयां हुई हैं. राजनीतिक आम सहमति के बिना ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ के विचार को भी मूर्त रूप देना शायद कठिन होगा. भारत में तो ऐसे भी राजनीतिक विचार सामने आते हैं जहां भारत को नेशन के रूप में स्वीकार नहीं करते हुए यह कहा जाता है कि भारत तो राज्यों का समूह है. राजनीति के ऐसे विचार कभी भी ‘वन नेशन’ के किसी भी प्रयास का समर्थन कैसे करेगा? जो राष्ट्र के भाव को ही स्वीकार नहीं करता वह राष्ट्र की मजबूती के लिए किए जाने वाले किसी भी प्रयास को कैसे स्वीकार करेगा?‘वन नेशन वन इलेक्शन’ के भाव में भी राष्ट्र को मजबूत करने का भाव समाहित लगता है. मोदी सरकार के विरोध और इतिहास की कर्महीनता से उत्पन्न ईर्ष्या नेशन पर हावी नहीं होना चाहिए. ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ का विचार समय की जरूरत है. यद्यपि इसको अमली रूप देने में बहुत व्यापक तैयारी की जरूरत होगी और निश्चित रूप से इसमें समय लगेगा. हो सकता है कि आसन्न चुनाव में इस नए विचार को लागू नहीं किया जा सके लेकिन इस विचार का विरोध राजनीतिक तो हो सकता है लेकिन इसे देश का समर्थन मिलना सुनिश्चित है.