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by NewsDesk - 10 Apr 24 | 156
1994 में रवांडा में घटी थी ये भयानक घटना ...
मध्य अफ्रीका का रवांडा एक छोटा देश है. 30 साल पहले 1994 में यहां भयंकर नरसंहार हुआ था जिसमें 8 लाख लोगों की जान चली गई थी. वहां के लोगों के साथ एकजुटता दिखाने के लिए और 1994 के उस भयानक हत्याकांड की याद में नई दिल्ली में स्थित कुतुब मीनार को रवांडा के नेशनल फ्लैग के रंगों से जगमगाया गया. जुलाई 1994 में रवांडा में 100 दिनों तक चले खूनी नरसंहार के बाद विद्रोही गुट रवांडा पैट्रियोटिक फ्रंट (RPF) ने राजधानी किगाली पर कब्जा कर लिया था। अल जजीरा के मुताबिक, इस हिंसा में लगभग 8 लाख लोग मारे गए थे जिनमें ज्यादातर तुत्सी समुदाय के थे।
रवांडा में पहले सबसे ज्यादा 85 फीसदी आबादी हुतु समुदाय की थी। दूसरे नंबर पर आते थे तुत्सी जिनकी संख्या कुल आबादी का लगभग 15 फीसदी थी. सबसे कम आबादी वाले टवा समुदाय के लोगों की आबादी 1% से भी कम थी. इतिहासकारों का मानना है कि सबसे पहले रवांडा में टवा समुदाय के लोग आए थे. उनके कुछ ही समय बाद शायद 5वीं से 11वीं सदी के बीच हुतु समुदाय के लोग वहां आकर बस गए। फिर 14वीं सदी से शुरू होकर तुत्सी समुदाय के लोग वहां आने लगे।
हालांकि रवांडा में तीनों समुदाय रहते थे, लेकिन 16वीं सदी तक वहां हुतु बहुमत में थे। 16वीं सदी में ही तुत्सी समुदाय के लोगों ने मिलकर एक छोटा राजशाही राज्य बना लिया, जो 19वीं सदी में यूरोपियों के आने तक चला. रवांडा में रहने वाले हुतु और तुत्सी समुदाय के लोगों के बीच पहले बहुत बड़ा फर्क हुआ करता था. तुत्सी लोग ज्यादातर पशु पालते थे, उनके पास ढेर सारी गायें हुआ करती थी। इस वजह से उनके पास दूध, घी जैसी चीजें ज्यादा होती थीं। वहीं हुतु लोग ज्यादातर खेती करते थे. इस फर्क की वजह से तुत्सी समाज हुतु समाज से ज्यादा अमीर और ताकतवर बन गया था।
जब जर्मनी और बाद में बेल्जियम ने रवांडा पर कब्जा किया तो उन्होंने लोगों को एक नजर में देखकर ही ये तय करना शुरू कर दिया कि वो कौन से समुदाय से हैं। इस तरह जर्मनी (1898-1916) और फिर बेल्जियम (1919 के बाद) के राज में हुतु और तुत्सी के बीच का फर्क और ज्यादा बढ़ गया। उन्होंने पहले से ही ताकतवर तुत्सी राजा को और ताकत दे दी. देश पर तुत्सी समुदाय का राज चलने लगा।
जब रवांडा में दोनों समुदाय के बीच शुरू हुआ विद्रोह
तभी कुछ हुतु लोगों को लगने लगा कि उन्हें भी तुत्सी के बराबर हक मिलना चाहिए। उनकी इस मांग को रोमन कैथोलिक धर्मगुरुओं और कुछ बेल्जियम के सरकारी लोगों ने भी जायज माना. इसी वजह से 1959 में हुटुओं ने विद्रोह कर दिया. ये विद्रोह एक अफवाह से शुरू हुआ था। 1 नवंबर 1959 को ये खबर फैली कि एक हुतु नेता को तुत्सी लोगों ने मार डाला है। इस खबर से गुस्साए हुतु लोगों ने तुत्सी समुदाय पर हमले कर दिए. कई महीनों तक हिंसा चलती रही, कई तुत्सी मारे गए या देश छोड़कर भाग गए. आखिरकार में 28 जनवरी 1961 को हुतु लोगों ने राजा का तख्ता पलट दिया। इस तख्तापलट के बाद रवांडा में तुत्सी राजशाही खत्म हो गई और रवांडा एक रिपब्लिक देश बन गया। नई सरकार में सिर्फ हुतु लोग थे और अगले ही साल रवांडा को आजादी मिल गई।
हुतुओं के राजा का तख्ता पलट करने के बाद भी शांति नहीं आई. 1959 से 1961 के बीच करीब 20,000 तुत्सी मारे गए और कई और देश छोड़कर भाग गए. साल 1964 की शुरुआत तक पड़ोसी देशों में कम से कम 1 लाख 50 हजार तुत्सी शरणार्थी बन चुके थे. इसके बाद भी कई बार हुतु और तुत्सी के बीच हिंसा होती रही. 1963, 1967 और 1973 में भी रवांडा में तुत्सी समुदाय के लोगों का कत्लेआम हुआ.
आखिर रवांडा में ये नरसंहार शुरू होने का कारण !
1990 में फिर से हुतु और तुत्सी के बीच तनाव बढ़ गया. इस बार युगांडा से तुत्सी समुदाय के विद्रोही गुट रवांडा पैट्रियोटिक फ्रंट (RPF) ने रवांडा पर हमला कर दिया. 1991 की शुरुआत में युद्धविराम हुआ और बातचीत शुरू हुई. RPF और उस वक्त के हुतु राष्ट्रपति जुवेनल हब्यारिमाना के बीच 1992 में बातचीत शुरू हुई. ये लड़ाई 1993 में एक शांति समझौते तक चलती रही.
30 साल पहले ऐसा नरसंहार जिसमें मार दिए गए थे 8 लाख लोग
इस समझौते के तहत RPF को भी सरकार में शामिल किया जाना था, लेकिन कट्टरपंथी हुतु इस समझौते के बिल्कुल खिलाफ थे. उन्होंने न्यूज पेपर और रेडियो के जरिए पहले से ही तुत्सी समुदाय के खिलाफ नफरत फैला रखी थी. अब ये नफरत और बढ़ गई, जिसने बाद में भयानक नरसंहार का रूप ले लिया. 6 अप्रैल 1994 की शाम को रवांडा के राष्ट्रपति जुवेनल हब्यारिमाना और उनके पड़ोसी देश बुरुंडी के राष्ट्रपति सिप्रियन नटार्यामिरा का विमान हवा में मार गिरा दिया गया. विमान में सवार सभी लोग मारे गए. हालांकि ये कभी साफ नहीं हो पाया कि विमान पर हमला किसने किया, लेकिन हुतुओं के कुछ उग्रपंथियों ने इस हादसे का ठीकरा RPF पर फोड़ दिया.
उसी रात से हुतु राष्ट्रपति के उग्र समर्थकों ने तुत्सी और उदार हुतु समुदाय के लोगों को जान से मारना शुरू कर दिया. अगले दिन उदार हुतु समुदाय से आने वालीं रवांडा की प्रधानमंत्री अगते उविलिंगइयिमाना को भी मार दिया गया. साथ ही बेल्जियम के सैनिकों को भी मार दिया गया जो पहले से ही रवांडा में शांति बनाए रखने के लिए तैनात थे. इन हत्याओं का मकसद रास्ते में आने वाले सभी उदार हुतु और तुत्सी नेताओं को खत्म करना था. ताकि सरकार में कोई न रह जाए और हुतु गुटों का नेता कर्नल थियोनेस्टे बागोसोरा एक नई सरकार बना सके. थियोनेस्टे बागोसोरा को बाद में नरसंहार का मुख्य साजिशकर्ता माना गया.
ढूंढ ढूंढकर बेरहमी से लोगों को मार दिया गया
रवांडा में करीब 100 दिनों तक भयंकर नरसंहार चलता रहा. चारों तरफ खून-खराब, बेबसी और अराजकता का माहौल था. हर तरफ कत्लेआम हो रहा था. इस नरसंहार में रवांडा की सेना और हुतु गुटों के लड़ाके सबसे आगे थे. रेडियो पर भी लगातार ऐसी बातें फैलाई जा रहीं थीं, जिनसे हुतु लोगों को गुस्सा आता था. हालांकि कुछ हुतु ऐसे भी थे, जो नहीं चाहते थे कि ये सब हो, लेकिन सेना और हुतु गुटों के डर से उन्हें भी लोगों की जान लेनी पड़ी. उन्हें आमतौर पर कुल्हाड़ी या लाठी से बहुत ही बेरहमी से मारा जाता था. इस दौरान कई तुत्सी महिलाओं के साथ रेप भी किया गया. यहां तक कि उनमें से कुछ को जानबूझकर एचआईवी से संक्रमित भी किया गया.
30 साल पहले ऐसा नरसंहार जिसमें मार दिए गए थे 8 लाख लोग
सरकार के खिलाफ बोलने वालों की पहले से ही लिस्ट तैयार कर ली गई थी. ये लिस्ट हुतु गुटों के लड़ाकों को दे दी गई थीं. लड़ाके इन लिस्टों के आधार पर उन लोगों और उनके पूरे परिवारों को मार देते थे. यकीन करना मुश्किल है लेकिन कई लोगों ने अपने पड़ोसियों को ही मार डाला. कुछ शौहरों ने तो अपनी तुत्सी बीवियों को भी मार डाला. उनका कहना था कि अगर वो ऐसा नहीं करते तो उन्हें खुद को मार दिया जाता. उस वक्त रवांडा में पहचान पत्रों पर लोगों की जाति भी लिखी होती थी. हुतु गुटों के लड़ाकों ने सड़कों पर नाके लगाए और वहां से गुजरने वाले तुत्सी लोगों को पहचान पत्र दिखाने के लिए रोका. अगर वो तुत्सी होते थे तो उन्हें लाठी या कुल्हाड़ी से मार दिया जाता था. हजारों तुत्सी महिलाओं को अगवा कर लिया गया और उन्हें गुलाम बनाकर रखा गया.
हालात बिगड़ने पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने नरसंहार रोकने की कोशिश की !
हालात बिगड़ने पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने दोनों रवांडा में पक्षों में समझौता कराने की कोशिश की लेकिन नाकामयाब रहा. इसके बाद यूएन ने एक अजीब फैसला लिया. उसने रवांडा में तैनात अपने सैनिकों की संख्या घटा दी. पहले वहां 2500 सैनिक थे, जिन्हें घटाकर सिर्फ 270 कर दिया गया. हालांकि 17 मई को संयुक्त राष्ट्र ने अपना फैसला बदल दिया. उसने अफ्रीकी देशों के करीब 5500 सैनिकों को लेकर एक नई फौज बनाने का फैसला किया.
30 साल पहले ऐसा नरसंहार जिसमें मार दिए गए थे 8 लाख लोग
22 जून को यूएन ने फ्रांस की अगुवाई वाले सैनिकों को रवांडा भेजने की इजाजत दे दी. इनका मकसद रवांडा में रहने वाले लोगों को सुरक्षा देना था. लेकिन रवांडा पैट्रियोटिक फ्रंट (RPF) इस ऑपरेशन के खिलाफ था. उसका कहना था कि फ्रांस हमेशा से रवांडा की सरकार और राष्ट्रपति हब्यारिमाना की नीतियों का समर्थन करता रहा है.इस कारण हुतु समुदाय की कट्टरपंथी सरकार आरपीएफ ने फ्रांस के सैनिकों को देश में आने की अनुमति नहीं दी. तब तक RPF ने पूरे देश के ज्यादातर हिस्सों पर अपना कब्जा कर लिया था. 4 जुलाई को राजधानी किगाली भी उनके कब्जे में आ गया था. 19 जुलाई को एक अस्थाई सरकार बनाई गई. इस सरकार में आरपीएफ नेता पाश्चर बिज़िमुंगु को राष्ट्रपति और पॉल कागमे को उप-राष्ट्रपति बनाया गया. इसके साथ ही ये भयानक नरसंहार खत्म हो गया।
by NewsDesk | 28 Sep 24
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